जी वन की प्रत्यंचा में धर्म (कर्म) एक महत्वपूर्ण धागा जिस से वर्तमान,भूत, भविष्य, के फल निर्माण किये जाते है धर्म एक ऐसी नीति है जिसके सहारे हम जुड़े हुवे है। परन्तु प्रेम एक ऐसी दिव्य नीति है जिस पर किसी धर्म का बंधन नहीं प्रेम नि:चल निःस्वार्थ प्रेम सब धर्मों के ऊपर हैं वही प्रेम अपनी प्रकाष्ठा में जब अनन्य भक्ति का रूप धारण कर लेता हैं तो स्वयं भगवान भी विधाता के बनाये विधान से सृष्टि के बनाये नियम तोड़ कर भक्त के आगे हाथ जोड़ कर खड़े रह जाते है और अपने भक्त की आन रखने पर विवश हो जाते हैं। प्रेम के भी अपने विधान है उसके भी अपने नियम हैं प्रेम की असली शक्ति उसके नि:स्वर्थ होने में है जब वो प्रेम नि:स्वार्थ होता है तो वो कुछ नहीं मांगता अपने प्रेमी को कुछ देना चाहता है तो उसका सूख ओर उसकी प्रशनता के लिए वो सब कुछ लुटा देना चाहता है इसी प्रेम करने वाले से पूछा जाए कि क्या दे सकते हो ? तो उत्तर होता है प्राणों से बड़ी कोई वस्तु नहीं ओर में प्राण दे सकता हूँ प्राण देना बहुत सरल काम है किंतु अपने प्रेमी के लिए जीना कठिन होता है यदि तुम सच्चे भा...